क्या कोविड के बाद बढ़ गए हैं रेस्पिरेटरी इन्फेक्शन के मामले
नई दिल्ली। कोविड-19 कोरोना महामारी का भयानक मंजर आज भी लोगों के जहन में जिंदा है। इस बीमारी ने दुनियाभर में कई लोगों की जानें छीन ली थी। अभी इस वायरस का साया दुनिया से उठा नहीं है। बीच-बीच में इसके नए स्ट्रेन लगातार लोगों और वैज्ञानिकों की चिंता बढ़ा रहे हैं। इसी बीच अब हाल ही में कोरोना संक्रमण को लेकर एक ताजा स्टडी सामने आई है।
अध्ययन के अनुसार, गंभीर कोविड-19 संक्रमण से उबरने वाले लोगों को लंग फंक्शनिंग डैमेज का सामना करना पड़ा। शोधकर्ताओं का कहना है कि अध्ययन में शामिल आधे प्रतिभागियों ने सांस की तकलीफ की शिकायत की, जो प्रदूषण सहित विभिन्न कारणों से हो सकता है। कोरोना महामारी का दौर आज भी लोगों की रूह कंपा देता है। इस वायरस ने पूरी दुनिया में कोहराम मचा दिया था। इसकी वजह से कई लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इसी बीच अब इसके लेकर एक ताजा स्टडी सामने आई है जिसमें यह बताया गया है कि कैसे कोरोना ने फेफड़ों और जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित किया।
आइए जानते हैं इस पर डॉक्टर्स की राय- "क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर द्वारा किए गए अध्ययन में फेफड़ों की कार्यप्रणाली पर कोविड-19 संक्रमण के प्रभाव की जांच की गई, जिसमें 207 व्यक्तियों की जांच की गई। इस दौरान कोरोना से ठीक हुए व्यक्तियों में फेफड़ों की कार्यक्षमता, व्यायाम क्षमता और जीवन की गुणवत्ता का विश्लेषण किया गया। आइए जानते हैं क्या रहती है यह स्टडी" -
क्या कहती है स्टडी?
अध्ययन में पाया गया कि गंभीर कोविड-19 बीमारी से ठीक होने के दो महीने से अधिक समय तक भारतीयों में रेस्पिरेटरी लक्षण देखने को मिले। इनमें 49.3% प्रतिभागियों ने सांस की तकलीफ और 27.1% प्रतिभागियों ने खांसी की शिकायत दर्ज की गई। अध्ययन से यह साफ है कि रोग की गंभीरता की हर श्रेणी में अन्य देशों के आंकड़ों की तुलना में भारतीयों के फेफड़ों की कार्यप्रणाली ज्यादा प्रभावित हुई है।
जानें डॉक्टर्स की राय
ऐसे में सामने आई इस स्टडी पर डॉक्टर्स की राय जानने के लिए हमने दिल्ली के पंजाबी बाग स्थित सीके बिड़ला हॉस्पिटल में पल्मोनोलॉजी विभाग के निदेशक डॉ. विकास मित्तल और नोएडा के फोर्टिस हॉस्पिटल में पल्मोनोलॉजी विभाग के अतिरिक्त निदेशक डॉ. मयंक सक्सेना से बातचीत की।
क्वालिटी ऑफ लाइफ पर कोई प्रभाव नहीं
इस स्टडी पर डॉ. विकास मित्तल कहते हैं कि हाल ही में आई स्टडी सिर्फ 63 डेज पोस्ट फॉलोअप है यानी इस स्टडी में शामिल लोगों को कोरोना से रिकवर हुए सिर्फ दो महीने ही हुए थे, जिसकी वजह से यह स्वाभाविक है कि फेफड़ों की कार्यक्षमता प्रभावित होगी, क्योंकि व्यक्ति अभी पूरी तरह से रिकवर नहीं हो पाया है। इसके विपरीत ऐसी कई स्टडीज सामने आ चुकी हैं, जिसमें यह पता चला है कि कोरोना से रिकवर होने के एक-दो साल बाद भले ही फेफड़ों की कार्यप्रणाली प्रभावित होती है, लेकिन इससे क्वालिटी ऑफ लाइफ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
डॉक्टर आगे कहते हैं इसके अलावा बीते कुछ समय में रेस्पिरेटरी सिस्टम से जुड़े मामलों में भी कोई बढ़ोतरी नहीं देखने को मिली है, तो इससे घबराने की कोई जरूरत नहीं है।
गंभीर हुए रेस्पिरेटरी डिजीज के पुराने मामले
वहीं, इसके विपरीत डॉक्टर मयंक का कहना है कि अब जब कोरोना महामारी को चार साल हो चुके हैं, पहली और दूसरी लहर में फेफड़ों को हुए नुकसान की गंभीरता अब उतनी नहीं है। हालांकि, गंभीर कोविड स्थितियों वाले लोगों में लंग फाइब्रोसिस देखने को मिल सकता है, जिसमें सांस फूलना और कमजोरी जैसे लक्षण नजर आ सकते हैं। उन्होंने आगे कहा कि मैंने खुद ऐसे बहुत से मरीजों को देखा है जिन्हें बचपन में एलर्जी और अस्थमा था, जो कि कोरोना से पहले के समय में नियंत्रित था और अब फिर से गंभीर हो गया है और उन्हें कोविड होने के बाद इन्हेलर की नियमित जरूरत पड़ती है।